मकर संक्रांति और पोंगल।। - IT/ITes-NSQF & GK

मकर संक्रांति और पोंगल।।

मकर संक्रांति त्यौहार:- 

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मकर संक्रांति का उत्सव लगभग सम्पूर्ण देश में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है. क्योंकि आज के दिन से ही प्रकाश अर्थात् ज्ञान अर्थात् जीवन की उष्णता कम होने का क्रम बदलता है.              

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना अर्थात् संक्रमण करना ही मकर संक्रांति कहलाता है. वास्तव में संक्रांति 'संक्रमण' का अपभ्रंश शब्द है, चूँकि हमने संक्रमण के स्थान पर संक्रांति शब्द को ही स्वीकार कर लिया है इसलिए इसे हम 'मकर संक्रांति' कहते हैं.                

जब सूर्य का संक्रमण धनु राशि से मकर राशि में होता है तो वह समय बहुत ही पवित्र एवं पुण्य-काल का माना जाता है. क्योंकि यह काल अज्ञानांधकार से प्रकाश रूप ज्ञान की ओर, असत्य से सत्य की ओर तथा मृत्यु से अमृत (जीवन) की ओर जाने का स्फूर्तिदायक एवं प्रेरणाप्रद काल है. कदाचित वेदों में भी इसी पुण्य पर्व के सन्दर्भ में कहा गया है:-

                     तमसो मा ज्योतिर्गमय.

                     असतो मा सद् गमय.

                     मृत्योर्माऽमृतं गमय.              

इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है. दक्षिण अर्थात् नीचे की ओर एवं उत्तर ऊपर की ओर. यानी नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना अर्थात् तमोगुण से सतोगुण की ओर बढ़ना.           

सूर्य का उत्तरायण होने का अर्थ है देवत्व को प्राप्त होना. यही कारण था कि भीष्म पितामह ने अपने प्राणों का त्याग सूर्य का मकर राशि में प्रवेश अर्थात् सूर्य का उत्तरायण होने के लिए 58 दिन बाणों की शय्या पर लेटे रहने के पश्चात् किया था.           

मकर संक्रांति पर्व काल में हिन्दू समाज पवित्र तीर्थों व पवित्र नदियों में स्नान कर समाज के अभावग्रस्त व दीन-हीन बन्धुओं को अन्न, धन, एवं वस्त्रादि प्रदान कर उन्हें जीवन यापन योग्य बनाते हैं.                 

आज भी भारत के गाँवों में गृहस्थ लोग प्रातःकाल अपने घरों के द्वार पर पशुओं के लिए चारा रख छोड़ते हैं जिससे चरने वाले पशु उस चारे को खाते जाते हैं. परिवार की महिलाएँ प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने सास-श्वसुर व ज्येष्ठ आदि के चरण-स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करती हैं और उन्हें वस्त्रादि प्रदान कर परिवार का स्नेहमय उल्लासपूर्ण वातावरण बनाती हैं.

इस प्रकार मकर संक्रमण (मकर संक्रांति) एक श्रेष्ठ पारिवारिक पर्व के साथ-साथ एक सामाजिक व यज्ञ संस्कृति का पर्व भी है. इस अवसर पर सामूहिक यज्ञ किये जाते हैं. यज्ञ की सामग्री में तिलों की मात्रा अधिक रहती है.          

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि यज्ञ द्वारा मेघ (बादल) बनते हैं और वर्षा होती है. यज्ञ सामग्री में जब तिलों की अधिकता रहेगी तो मेघ (बादल) बनेंगे और वर्षा भी होगी क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और इस समय वर्षा की आवश्यकता होती है.         

यज्ञ-सामग्री में यव (जौं) की मात्रा अधिक रखकर हवन-यज्ञ करने से मेघ (बादल) विसर्जित होते हैं जो प्रायः फाल्गुन मास में होलिका दहन के अवसर पर देखने को मिलता है. क्योंकि फसल पक जाने के कारण वह समय वर्षा के लिए उपयुक्त नहीं होता.      

वास्तव में हिन्दू समाज के पर्वोत्सव यज्ञ संस्कृति के उत्सव हैं. 'उत्सव' शब्द में 'उत्' उपसर्ग के साथ 'सव' पद जुड़ा है जिसका एक अर्थ यज्ञ भी होता है. लोहड़ी अथवा होलिका दहन आदि सामुहिक यज्ञों के ही स्वरूप हैं जिन्होंने काल-क्रम से आधुनिक रूप धारण कर लिया है.

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पोंगल त्यौहार:- 

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'पोंगल' दक्षिण भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। इस दिन लोग सूर्यदेव और इंद्र देव की पूजा करते हैं। ये त्योहार चार दिनों तक चलता है। त्योहार के पहले दिन को 'भोगी पोंगल' कहते हैं, दूसरे दिन को 'सूर्य पोंगल', तीसरे दिन को 'मट्टू पोंगल' और चौथे दिन को 'कन्नम पोंगल' कहते हैं। यह तमिल सौर कैलेंडर के अनुसार ताई महीने की शुरुआत में मनाया जाता है; इसलिए तमिल लोग इसे अपना 'न्यू ईयर' मानते हैं।

क्यों कहते हैं इसे 'पोंगल' :- 

•इस त्यौहार का नाम 'पोंगल' इसलिए है क्योंकि इस दिन सूर्य देव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है वह 'पोंगल' कहलता है। तमिल भाषा में 'पोंगल' का अर्थ होता है 'उबालना'।

इसलिए इस दिन नए बर्तन में दूध, चावल, काजू, गुड़ आदि चीजों की मदद से पोंगल नाम का भोजन बनाया जाता है।

•पोंगल की तुलना नवान्न से की जा सकती है जो फसल की कटाई का उत्सव होता है।

•इस पर्व का इतिहास कम से कम 1000 साल पुराना है।

•इस दिन लोग नए कपड़े पहनते हैं और अपने घरों को रंगोली से सजाते हैं, घरों में काफी पकवान बनते हैं।

•इस त्योंहार में गायों और बैलों की भी पूजा की जाती है।

क्यों मनाया जाता है 'पोंगल' :- 

इस दिन धान की फसल कटती है, जो कि संपन्नता को व्यक्त करती है। किसान इसी बात पर खुशी मनाते हैं और इस त्योहार के जरिए वो सूर्य देव और इंद्र देव को धन्यवाद देते हैं क्योंकि उन्हीं की कृपा से फसल तैयार हुई है और घर में संपन्नता आती है। इस दिन घरों में खास तौर पर चावल के व्यंजन बनते हैं। पर्व के तीसरे दिन शिव के प्रिय नंदी की पूजा होती है; इसलिए जिनके पास बैल होते हैं, वे इस दिन बैलों की पूजा करते हैं। इस त्योहार के अंतिम दिन कन्या पूजन किया जाता है क्योंकि कन्याओं को साक्षात मां लक्ष्मी और मां काली का रूप माना जाता है। इस दिन दोनों देवियों की भी विशेष पूजा होती है। इस दिन लोग एक-दूसरे को मिठाई बांटकर मिठास बांटने की कोशिश करते हैं और एक-दूसरे की सुख की कामना करते हैं।

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